जिंदगी अनसुलझी सी ...........

  उम्मीदों के सपने संजोए, बाबुल का घर छोड़कर जब वह आती है ससुराल , तो मानो लगता है उससे ज्यादा खुशकिस्मत कोई नही है ।  आइने मे जब अपने आप के नए रूप को देख, वो  नए रिश्ते ,नए परिवेश को उसी पल स्वीकार कर लेती है , घर के हर एक कोने में सपने संजोती है  कि " काश ऐसा होता.".......
          
          रिश्तो की पदोन्नति होते होते एकाएक वही रिश्ता ही छूट गया , जिससे मेरी पदोन्नति हुई। बहुत कोशिशों के बाद भी नही समेट पायी ,वो रिश्ता। वह मजबूर और लाचार सा महसूस करने लगी । जीने की आश छोड़ती कि उससे पहले उस मासूम का चेहरा नजर आया,
नन्हे हाथों से आँचल पकड़ डरी सहमी सी वो मुझसे लिपट गई और धीरे से कान मे बोली -" मम्मा का हुवा  " । मै उसे सीने से लगाकर बोली -कुछ नही मेरा बच्चा । फिर वो बोली मम्मा रो मत  -मै हूँ  

        उसके शब्दों ने जीने की आश जगा दी । मै एक जिंदा लाश सी पड़ी रहती , टकटकी लगाए आकाश निहारती।  अपने मे अपनी गलतियो को ढूँढती , मेरी गलती  है क्या ? फिर  अंतरात्मा से आवाज आई   कि छोड़ दे उन रिश्तो को, जिसे तेरी परवाह 
 ही नही ।
        मै सोचती हूँ कि किसी रिश्ते की  फिक्र करना, परवाह करने से जिंदगी मुकाम मे खड़ी कर दे , जहाँ कोई  किनारा  ही  नजर न आए ,तो धिक्कार है  ऐसा रिश्ता ......... ऐसी जिंदगी......
                                          अंशु स्वर्णकार 
                                              भिलाई 



          



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